किसान-बागवानों के लिए संजीवनी प्राकृतिक खेती

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के किसान-बागवानों के सामने उत्पादन और मूल्य प्राप्ति दोनों में अनिश्चितता व मंहगी खेती के साथ प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की चुनौती भी खड़ी हो गई है। पर्यावरर्णीय बदलावों और उच्च उत्पादन के मोह में कृषि लागत में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। लगातार गिरता उत्पादन और बढ़ती बीमारियां कृषि-बागवानी क्षेत्र की जटिलताओं को और बढ़ा रही हैं जिससे लाखों किसानों का खेती से मोह भंग हो रहा है। इस परिस्थिति से किसानों को निकालने और उनके दीर्घकालिक कल्याण के लिए हिमाचल सरकार ने प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना की शुरूआत की जिसकी तरफ रूख करने से किसान-बागवानों को सकारात्मक परिणाम मिल रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र के छोटे से पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के किसानों के सफल प्राकृतिक खेती मॉडल अब धीरे-धीरे अन्य राज्यों के किसानों के बीच भी ख्याति पा रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र के लद्दाख, उत्तराखंड सहित कई अन्य राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के किसान हिमाचल प्रदेश के किसान-बागवानों के खेतों में भ्रमण कर प्राकृतिक खेती विधि को सीख कर अपना रहे हैं।
हिमाचल में साढ़े 3 साल पहले शुरू की गई प्राकृतिक खेती के सफल परिणाम नजऱ आने लगे हैं। रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित कर किसान की खेती लागत और आय बढ़ाने के लिए शुरू की गई ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसानÓ योजना को किसान समुदाय बड़ी तेज़ी से अपने खेत-बागीचों में अपना रहा है। योजना के शुरूआती साल में ही किसानों को यह विधि रास आ गई और 500 किसानों को जोडऩे के तय लक्ष्य से कहीं अधिक 2,669 किसानों ने इस विधि को अपनाया।
प्राकृतिक खेती से जुड़ा रोचक तथ्य यह देखने को मिला कि जहां कोविड काल में सभी क्षेत्रों में कोविड की पाबंदियों के विपरीत असर देखने को मिले वहीं कोविड काल में भी इस विधि के प्रति किसानों का लगाव बढ़ा एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद साढ़े 14 हज़ार से ज्यादा नए किसानों ने प्राकृतिक खेती को अपनाया। हिमाचल प्रदेश सरकार की ओर से शुरू की गई इस योजना के तहत के तहत नबंबर 2021 तक प्रदेशभर में 1,71,353 किसानों को प्रशिक्षित किया गया है, जिनमें से 1,59,465 किसान परिवारों ने 1 लाख बीघा (9,212 हैक्टेयर) से ज़्यादा भूमि पर इस खेती विधि को खेती-बागवानी में अपनाया। कृषि विभाग के आंकडों के अनुसार ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसानÓ योजना प्रदेश की 3,615 में से 3,581 पंचायतों तक पहुंच चुकी है।
प्राकृतिक खेती को लेकर राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई ने विभिन्न अध्ययन किए हैं जो इस विधि की प्रासंगिकता एवं व्यावहारिकता को इंगित करते हैं। सेब बागवानी के उपर किए गए अध्ययन सेब बागवानों की लागत में 56 फीसदी तक कमी आई है और उनके शुद्ध मुनाफे में 27 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसके अलावा प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद किसानों की खेती लागत जहां 46 प्रतिशत कम हुई है वहीं उनका शुद्ध लाभ 22 प्रतिशत बढ़ा है। सेब-बागवानी में बीमारियों के प्रकोप पर किए अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक खेती से सेब पर बीमारियों का प्रकोप अन्य तकनीकों की तुलना में कम रहा। प्राकृतिक खेती से जहां सेब के पौधों और पत्तियों पर स्कैब का प्रकोप क्रमश: 9.2 एवं 2.1 प्रतिशत रहा वहीं यह रसायनिक खेती में 14.2 एवं 9.2 प्रतिशत रहा। इसी तरह प्राकृतिक खेती बागीचों में आकस्मिक पतझड़ 12.2 रहा जबकि रसायनिक खेती वाले बागीचों में इस रोग का प्रकोप 18.4 प्रतिशत हुआ। इसके अलावा सेब-बागवानी और खेती फसलों में रसायनिक के मुकाबले प्राकुतिक खेती में बीमारियों का प्रकोप भी कम आंका गया है। प्राकृतिक खेती के उपर किए गए अध्ययनों में किसान-बागवानों ने बताया कि इस खेती विधि से उनकी मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ी है और स्वाद बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा किसान-बागवानों का मानना है कि फसलें कम या सूखे की स्थिति में भी अच्छी तरह से खड़ी रहती हैं और बेहतर उत्पादन दे रही हैं। प्राकृतिक खेती के नतीजों से प्रभावित होकर बागवान बड़ी संख्या में इस विधि के प्रति आकर्षित हुए हैं। मौजूदा आंकड़ों के अनुसार प्रदेशभर के 14 हजार से ज्यादा बागवान प्राकृतिक विधि से विभिन्न फल-सब्जियां उगा रहे हैं। इसके अलावा यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय और चौधरी सरवण कुमार कृषि विश्वविद्यालय में प्राकृतिक खेती पर चल रहे शोध कार्य में प्रारंभिक तौर पर संतोषजनक नतीजे देखने को मिले हैं। इस खेती विधि से प्रदेश के चारों कृषि भोगोलिक क्षेत्रों के किसान जुड़ चुके हैं और वे इसे अपनाकर कम लागत में विविध फसलों पर बेहतर उत्पादन ले रहे हैं।
हिमाचल सरकार की ओर से शुरू की गई प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना की राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई एक सतत् खाद्य प्रणाली पर भी काम कर रही है ताकि प्रदेश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। इस प्रणाली को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के विशेषज्ञों के सुझावों के अनुरूप पारदर्शिता को ध्यान में रखते हुए वास्तविक मूल्य के सिद्धांत पर तैयार किया जा रहा है। किसानों के उत्पादों को बाजार मुहैया करवाने के लिए हर एक ब्लॉक में किसान उत्पाद संघों का निर्माण किया जा रहा है। इनके माध्यम से किसानों को उनके उत्पादों को उचित मूल्य प्रदान करने की दिशा में काम किया जा रहा है। प्राकृतिक खेती कर रहे किसान-बागवानों और उपभोक्ताओं के लिए एक अनूठी स्व-प्रमाणन प्रणाली भी विकसित की जा रही है। इसमें किसानों का निशुल्क पंजीकरण करवाया जा रहा है ताकि बाजार में प्राकृतिक खेती उत्पाद की पैठ बढ़े एवं किसानों को बेहतर मूल्य सुनिश्चित हो और किसानों के उपर किसी प्रकार का अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी न पड़े।
पुराने एवं स्थानीय बीजों की महत्ता को समझते हुए योजना के तहत इन बीजों के संरक्षण एवं संवर्धन को भी तरजीह दी जा रही है। किसानों के व्यापक कल्याण के लिए राज्य परियोजना इकाई, नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रही है। प्राकृतिक खेती विधि न सिर्फ किसान-बागवान हितैषी है बल्कि यह पर्यावरण हितैषी भी है। प्राकृतिक खेती अब केवल हिमाचल तक सीमित न रहकर देश और विदेश भी ख्याति पा रही है और हिमाचल प्रदेश के खेती मॉडल को देष के अन्य राज्य भी अपना रहे हैं और अब इस खेती विधि को बढ़ावा देने के लिए देश की नीति निर्धारक संस्था नीति आयोग भी आगे आई है और इसे बढ़ावा देने के लिए हाल ही में एक वैबसाइट को भी शुरू किया गया है। इससे किसानों को इस खेती विधि को अपनाने में आसानी होगी।
इस खेती विधि की वजह से न सिर्फ किसानों की आर्थिकी बेहतर हो रही है बल्कि भारत की ओर से पर्यावरण संरक्षण के लिए 17 सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिए गए वचन में से 7 लक्ष्यों को पूरा किया जा रहा है।