
सम्पादक, ग्राम परिवेश
राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, संगठन महामंत्री पवन राणा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सियासी तानेबाने में उलझी भाजपा 2022 के विधानसभा चुनाव में सुर ताल खो चुकी है। टिकटों के बंटवारे के समय प्रदेश भाजपा की राजनीति के इन चारों ध्रुवों ने एक दूसरे को हराने में खूब दांवपेच खेला। टिकट आवंटन में प्रत्याशी की योग्यता को तरजीह देने की बजाय उसकी उपयोगिता को महत्व दिया गया जिसके चलते सबसे अनुशासित पार्टी कही जाने वाली भाजपा में अप्रत्याशित बगावत हुई।
दरअसल हिमाचल प्रदेश भाजपा की राजनीति में अन्य राज्यों से विपरीत विद्यार्थी परिषद की महत्वपूर्ण भूमिका है। 80 व 90 के दशकों में परिषद की छात्र राजनीति से कई बड़े नेता उभरकर आए और इन नेताओं को प्रदेश भाजपा की राजनीति के पहले पायदान पर ले जाने वाले समर्पित और संकल्पित नेता महेंद्र पांडे को भाजपा राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका मिली। प्रो. प्रेम कुमार धूमल के प्रदेश अध्यक्ष व मुख्यमंत्री काल में उनकी सियासी उपयोगिता के अनुरूप महत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा। महेंद्र पांडे महत्वपूर्ण और विशेष नेता की भूमिका में आए जिसके चलते परिषद राजनीति से ही निकले जेपी नड्डा व पांडे के बीच सियासी तनाव शुरू हो गया। नड्डा ने विद्यार्थी परिषद के नेताओं को हाशिए पर धकेलना शुरू कर दिया। प्रोफेसर धूमल को यह रास आ रहा था। उन्होंने अनुराग को राजनीति में आगे बढ़ाना शुरू कर दिया।
इस बीच महेंद्र पांडे संगठन महामंत्री के पद से हटे और उनकी जगह आर.एस.एस. की पृष्ठभूमि से आए पवन राणा ने प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री का पद संभाला। उन्होंने प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल, परिषद व नड्डा को घेरने के लिए संघ की राजनीति जमाने शुरू कर दी।
पवन राणा ने कांगड़ा ही नहीं समूचे प्रदेश में अपने लोगों को आगे बढ़ाना शुरू किया और नड्डा, परिषद व प्रोफेसर धूमल के लोगों को दरकिनार करने का खेल शुरू किया। पवन राणा की इस राजनीति के चलते भाजपा 2013 के चुनावों में प्रो. प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में सरकार रिपीट नहीं कर पाई। 2017 में प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल को राजनीति से निकालने की रणनीति के सूत्रधार भी पवन राणा ही थे जिनको पर्दे के पीछे से परिषद व नड्डा का कथित समर्थन था। प्रोफेसर धूमल की हार का लाभ परिषद ने उठाया और जयराम को मुख्यमंत्री बनाया।
परिषद को राजनीति में हावी होते देख नड्डा ने परिषद के नेताओं को कमजोर करना शुरू कर दिया जिसका जीता जागता उदाहरण है कृपाल परमार का मोदी के सामने रोना। खीमी राम का पार्टी छोडऩा भी यही एक कारण है। नड्डा और परिषद के इस खेल में पवन राणा अपनी सियासत बढ़ाने लगे। उन्होंने 2022 के टिकटों में अनुराग ठाकुर जो अपनी आक्रामक रणनीति के कारण राष्ट्र व प्रदेश की राजनीति में अद्भुत लोकप्रियता पा रहे हैं के लोगों को टिकट न देने का चक्रव्यूह रचा, लेकिन अनुराग अपने कुछ लोगों को बचाने में कामयाब रहे। पवन राणा की चलती तो रमेश धवाला व रविन्द्र रवि को टिकट ही नहीं मिलता और सती हरोली पहुंच गए होते। नड्डा ने अपने गृह क्षेत्र बिलासपुर सदर में परिषद के त्रिलोक को टिकट तो दिलवा दी परंतु बागी सुभाष शर्मा को बैठाने में असमर्थता दिखा दी।
इन चारों धु्रवों की लड़ाई में प्रदेश भाजपा में जबर्दस्त बगावत हुई। कम से 25 बागियों में से 12 बागी भाजपा को धूल चटाने की कुव्वत रखते हैं और इन चारों की सियासी चौसर पर चली चालों के कारण चार सीटें शिमला, कसुम्पटी, नूरपुर व फतेहपुर विपक्षी दलों के लिए तोहफा साबित हो सकती है।
इन चारों की सियासी अदावत से उपजी बगावत को मोदी भी शांत करने में असफल रहे, क्योंकि हर बागी अपने-अपने विरोधी को धराशाई करने के लिए भिड़ गया है। वह कहते हैं कि जब सिर दिया ओखली में तो मूसलों से क्या डरना।
साभार : ग्राम परिवेश